Monday, August 29, 2011

तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा हुआ

अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हो गया है, लेकिन आंदोलन अभी जारी है। अन्ना हजारे के बेहद करीबी व सिविल सोसाइटी के सदस्य अरविंद केजरीवाल जनलोकपाल विधेयक के लिए हो रहे आंदोलन को लोकतंत्र में मील का पत्थर मानते हैं। उनका मानना है कि इससे तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा होगा। विशेष संवादताता मुकेश केजरीवाल के साथ उन्होंने आंदोलन व उसके भविष्य से जुड़े सवालों पर खुल कर बात की। प्रस्तुत हैं चर्चा के प्रमुख अंश- आंदोलन का देश के राजनीतिक विमर्श पर क्या असर पड़ता देख रहे हैं? अन्ना का यह आंदोलन जनतंत्र की जड़ों को बेहद गहरा करेगा। यह पहला मौका है, जब किसी कानून पर इतने व्यापक स्तर पर चर्चा हुई है। जन-जन के बीच से इसकी मांग उठी है। यह आंदोलन भले ही एक बिल की मांग को लेकर था, लेकिन आप देख सकते हैं कि इसने देश के करोड़ों लोगों को भ्रष्टाचार को सीधी चुनौती देने की ताकत दे दी है। तंत्र के मन में जन का खौफ पैदा किया है। इसने यह भी दिखाया है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं। सिर्फ पांच साल में एक बार आपने वोट डाल दिया और जिम्मेदारी खत्म। यह ठीक नहीं। सतत भागीदारी चाहिए। संसद सिर्फ चुनाव में ही जनता की क्यों सुनेगी? हर कानून बनने से पहले क्यों नहीं गांवों की ग्राम सभा और शहरों की मोहल्ला सभा से सलाह ली जाए। जनता को डेली बेसिस पर शामिल किया जाना चाहिए। अनशन पर बैठे अन्ना को अपने उद्देश्य में कहां तक कामयाब माना जा सकता है? आंदोलन ने सिर्फ एक और चरण पूरा किया है। पहला चरण था पांच अप्रैल का अनशन। दूसरा चरण था साझा मसौदा समिति। तीसरा चरण रामलीला मैदान पहुंचना। अब चौथा चरण पूरा हुआ संसद में प्रस्ताव पारित होने से। आगे किस तरह चलेगा आंदोलन? अन्ना ने साफ कर दिया है कि जन लोकपाल बिल पारित होने तक यह आंदोलन चलता रहेगा। हमारी कोर कमेटी की बैठक होगी और आगे की रूप-रेखा तय की जाएगी। अन्ना ने यह भी साफ कर दिया है कि यह आंदोलन सिर्फ जनलोकपाल तक सीमित नहीं रहने वाला। इसके अलावा हम चुनाव सुधार, न्यायिक सुधार और सत्ता के विकेंद्रीकरण पर भी लड़ेंगे। इन मुद्दों को लेकर हम जनता के बीच बने रहेंगे। विरोधियों का कहना है कि आप जनतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर रहे थे? जनता अगर इकट्ठी होकर किसी भावना की अभिव्यक्ति करे तो उसे भीड़तंत्र कहना कहां तक उचित है? क्या जनतंत्र का मतलब ही जनता की अधिकतम सहभागिता नहीं? क्या यह जनता शांतिपूर्ण और कानूनसम्मत तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अपनी आवाज नहीं रख सकती? सरकार तो कह रही थी कि आप कनपटी पर अनशन की बंदूक सटाकर बिल पास करवाना चाहते हैं? अनशन का फैसला अन्ना ने कोई शौक से नहीं किया था। 74 साल के एक बुजुर्ग को इसके लिए मजबूर होना पड़ा। 42 साल से तो जनता इस तंत्र से उम्मीद लगाए बैठी ही थी कि वह खुद कुछ करे। कम से कम दस महीने से अन्ना ने अनेक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिख-लिख कर मांग की। मगर सरकार ने जैसे आंख, कान बंद कर लिए थे। भ्रष्टाचारियों को यह देश कब तक खुली लूट की छूट देता रहेगा? लेकिन कानून बनाने का काम तो संसद को दिया गया है? ऐसा कहने वालों को अपनी सोच और उसकी दिशा के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। क्या कानून बनाने का काम सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सीमित रखना असली लोकतंत्र है? हम कहते हैं कि असली लोकतंत्र तो वह है जिसमें कानून बनाने से पहले उस पर चर्चा हर गली-मोहल्ले में हो। जैसा जनता चाहे, वही कानून बने। लेकिन हो क्या रहा है, राय लेना तो दूर, वे उनकी भावनाओं के बारे में सोचते भी नहीं, बल्कि पार्टी हाईकमान के इशारे पर नाचते हैं। इसका ताजा उदाहरण है जब वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने लोकपाल साझा मसौदा समिति के अध्यक्ष के नाते राज्यों के मुख्यमंत्रियों से छह मुद्दों पर राय मांगी थी। हमें यह देखकर शर्म आ रही थी कि कांग्रेस शासित राज्यों ने बाकायदा पत्र लिखकर कहा कि जैसा पार्टी हाईकमान कहेगा, वही करेंगे। यहां तक कि कुछ माननीय मुख्यमंत्रियों ने तो सीधा यही लिखा कि हम पार्टी हाईकमान की राय से अलग सोच भी कैसे सकते हैं। क्या मुख्यमंत्रियों का फर्ज सिर्फ उस पार्टी हाईकमान के प्रति ही है। अपने राज्य की जनता के प्रति नहीं। आपने एक मसौदा रखा और कहा कि एकमात्र यही रास्ता है..? हम सब जनता का यह हक है कि हम अपने मुताबिक सरकार को चलाने के लिए दबाव बनाएं। हमने कभी नहीं कहा कि हमारे मसौदे में कोई बदलाव नहीं हो सकता। हमने जगह-जगह और तरह-तरह से जनता की राय ली। दस बार हमने अपने प्रारूप बदले। फिर भी अप्रैल में जब अनशन किया था तो यही शर्त थी कि बैठकर मसौदे पर चर्चा करें, मगर सरकार की नीयत ठीक नहीं रही। सात बैठकों तक छोटे मसलों पर बात करते रहे। फिर एकाएक मेज उछाल दी। कहा, बैठक खत्म। सार्वजनिक तौर पर बहस कर लें। क्या यह सही है कि आपका आंदोलन नेताओं के खिलाफ है? आंदोलन के दौरान बहुत से लोग बहुत तरह की बातें बोलते हैं। हो सकता है कि एक-दो लोगों ने राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बारे में ऐसी टिप्पणी की हो, लेकिन आंदोलन के नेतृत्व ने कभी ऐसा नहीं कहा कि सभी नेता बेईमान हैं। आंदोलन के दौरान नेतृत्व कर रही कोर कमेटी में सार्वजनिक तौर पर मतभेद दिखे। ऐसा लग रहा था कि आप सबसे हार्डलाइनर हैं? यह कुछ जड़ या स्थिर विचार वाले लोगों का समूह नहीं है। जब भी हमने बैठक की, मिलकर आम राय से फैसले किए। आंदोलन के दौरान हर वक्त कुछ नया और अहम हो रहा था, तो संभव है कि किसी नई परिस्थिति पर अलग-अलग विचार हो। न तो किसी के बोलने पर रोक थी, न ही एक जैसा बोलने का कोई आग्रह। आपके विरोधी कहते हैं, आपने अन्ना का इस्तेमाल किया..? (ठहाका लगाते हुए) अन्ना तो देश भर के हैं। जो चाहे देशहित में उनका लाभ ले ले। आपकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तो होंगी ही? हम सब राजनीति में तो हैं ही। यह पूरा आंदोलन राजनीतिक है। हां, दलगत राजनीति का कोई इरादा कतई नहीं है। न ही कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है।
********** {जनलोकपाल आंदोलन पर जागरण में प्रकाशित अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल का यह आलेख राजनीतिज्ञों के द्वारा खड़े सवालों का जवाब देता है }*********

No comments: